wwwkathakriti.blogspot.com
kathakriti: अशोक आंद्रे
http://wwwkathakriti.blogspot.com/2010/06/blog-post_25.html
Friday, 25 June 2010. अशोक आंद्रे. अचानक अट्टहास का क्रूर स्वर . पैर ठिठक गए .जीवन के सभी प्रश्न एक साथ विस्मय से चीख उठे , " कौन है"? फिर अट्टहास. घबराहट ने थोड़ी हिम्मत बटोरी - " कौन हंस रहा है", इस एकांत में? सामने क्यों नहीं आता . मैं" मैं वही हूँ जिसकी तलाश में तुम अज्ञात में पलायन कर रहे हो ". क्या मतलब? मैं हूँ एकांत" . लेकिन तुम इतने क्रूर, इतने डरावने क्यों लग रहे हो"? A REVERIE - by ashok andrey. Great silence of trembling darkness at evening. Melts in the chores, scattered in my surrounding.
wwwkathasrijan.blogspot.com
kathasrijan: August 2013
http://wwwkathasrijan.blogspot.com/2013_08_01_archive.html
Wednesday, August 14, 2013. अशोक आंद्रे. तुम तो बहती नदी की वो. जल धारा हो. जिसमें जीवन किल्लोल करता है. नारी,. तुम धरती पर लहलहाती. हरियाली हो. बरसात के साथ. जीवन को नमी का. अहसास कराती हो. नारी,. तुम गंगा सी पवित्र आस्था हो. जो समय को. अपने आँचल में बाँध. विश्वास को पल्लवित करती हो. नारी,. तुम्हारा न रहना. किसी मरघट की शान्ति हो जाती है. फिर सुहागन होने की. बात क्यूँ करती हो? कुछ कदम साथ चलने की बात करो,. नारी,. तुम तो सहचरी हो. जीवन की संरचना करती हो. भरपूर कोशिश करती हो. नारी,. Read in your own script.
wwwkathakriti.blogspot.com
kathakriti: अशोक आंद्रे
http://wwwkathakriti.blogspot.com/2011/01/blog-post.html
Wednesday, 19 January 2011. अशोक आंद्रे. इन्हीं पेड़ों पर वह कितनी बार चढ़ा - उतरा है निशा के कहने पर । कितना अच्छा. कितना अजीब लगता है आज सोचने पर, गाँव का निपट बेवकूफ - सा दिखने. वह अक्सर डरी - डरी सी रहने लगी थी. पुलिस की भी कोई नौकरी होती है? लगा, हवा फिर तेज हो गयी है. अन्धेरा भी कुछ ज्यादा ही घिर आया है. सर्दी की. एक गिलास पानी पीकर , बड़े साहब के कमरे की तरफ चल दिया था वह. जहां बड़े स...साहब अभी भी उससे कुछ कह रहे थे. और वह उनकी हिदì...हुआ अन्दर ही अन्दर प्ल...उसने चुपचा...चला...
wwwkathakriti.blogspot.com
kathakriti: May 2011
http://wwwkathakriti.blogspot.com/2011_05_01_archive.html
Monday, 30 May 2011. अशोक आंद्रे. दूसरी मात. दिन की आँख खुलने से पहले ही चिड़ियों की चहचहाहट ने रतन की नींद को पूरी तरह से उचाट दिया था. कुनमुनाते हुए रजाई को एक तरफ धकेल, अंगड़ाई से शरीर. में फुर्ती का एहसास महसूसा था रतन ने. रात्री का टुकड़ा भर अँधेरा अभी भी कमरे की कैद से छूट. बाहर के वातावरण को सूंघना चाहा, हवा का सर्द झोंका पूरे कमरे में आतंक फैला गया. चाय की तलब एक बार फिर नन्हे खरगोश की तरह रतन के भीतर. छा जाती है. पड़ोसी रामलाल कंठ - फ&...है, तभी तो.". कुछ प्रतिवाद किय&...रजाई को अपन...ब्र...
wwwkathasrijan.blogspot.com
kathasrijan: March 2013
http://wwwkathasrijan.blogspot.com/2013_03_01_archive.html
Sunday, March 10, 2013. अशोक आंद्रे. लेकिन बिल्ली तो ! बिल्ली ने जब भी रास्ते को लांघा. तब हर कोई खामोश हो उसे देखता है. मन में अस्तित्व विहीन शंकाओं के गुबार. उमड़ने लगते हैं लगातार,. कितनी प्राकृतिक प्रक्रियाओं के चलते. करती हैं निरंतर यात्रा ,. उसकी तमाम इच्छाएं तथा शंकाएं बाजू में खडी रहकर।. कुछ भी तो नहीं बदलता है इस दौरान. मनुष्य है कि इसे ही शाश्वत समझ कर निगाहों से घूरता हुआ. दहलता रहता है खामोश. जिसकी निरंतरता के चलते वह,. दिल को गहरा छू लेती है. Subscribe to: Posts (Atom). Read in your own script.
wwwkathasrijan.blogspot.com
kathasrijan: July 2012
http://wwwkathasrijan.blogspot.com/2012_07_01_archive.html
Saturday, July 7, 2012. अशोक आंद्रे. जिस भूखंड से अभी. रथ निकला था सरपट. वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,. नंगा कर रहे थे उन पेड़ों को. हवा के बगुले. मई के महीने में. पोखर में वहीं,. मछली का शिशु. टटोलने लगता है माँ के शरीर को. माँ देखती है आकाश. और समय दुबक जाता है झाड़ियों के पीछे. तभी चील के डैनों तले छिपा. शाम का धुंधलका. उसकी आँखों में छोड़ जाता है कुछ अन्धेरा . पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे. उसके शिशु की. देह और आत्मा के बीच के. शून्य को निगल जाता है. और माँ फिर से. Subscribe to: Posts (Atom).
wwwkathasrijan.blogspot.com
kathasrijan: December 2011
http://wwwkathasrijan.blogspot.com/2011_12_01_archive.html
Sunday, December 4, 2011. कविताएँ - अशोक आंद्रे. हवा के झोंकों पर. रात्री के दूसरे पहर में. स्याह आकाश की ओर देखते हुए. पेड़ों पर लटके पत्ते हवा के झोंकों पर. पता नहीं किस राग के सुरों को छेड़ते हुए. आकाश की गहराई को नापने लगते हैं. उनके करीब एक देह की चीख. गहन सन्नाटे को दो भागों में चीर देती है. और वह अपने सपने लिए टेड़े-मेड़े रास्तों पर. अपनी व्याकुलता को छिपाए. विस्फारित आँखों से घूरती है कुछ. फिर अपने चारों और फैले खालीपन में. पिरोती है कुछ शब्द. घर के बाहर ,. शायद यही हो सृष&...हवा के झ&...शाय...
wwwkathasrijan.blogspot.com
kathasrijan: July 2014
http://wwwkathasrijan.blogspot.com/2014_07_01_archive.html
Tuesday, July 29, 2014. अशोक आंद्रे. आहट दो क़दमों की. रोज शाम के वक्त सुनता है वह. जब उन दो क़दमों की आहट को ,. तब साँसें थम जाती हैं. उन हवाओं की थपथपाहट के साथ. जहाँ ढूँढती हैं कुछ, उसकी निगाहें. घर के आँगन के हर कोनों में,. वहीं पेड़ भी महसूस करते हैं. पत्तों की सरसराहट में उन आहटों को,. उन्हीं दृश्यों के बीच अवाक खड़ा. नैनों की तरलता को थामें. निहारता रहता है आकाश में. अपनी स्व: की आस्थाओं को भीजते हुये. किसी मृग की तरह,. लेकिन जिस्म तो. जिसे पढने में असमर्थ वह. तब पास ही बिछी. Subscribe to: Posts (Atom).
wwwkathakriti.blogspot.com
kathakriti: अशोक आंद्रे
http://wwwkathakriti.blogspot.com/2010/08/blog-post.html
Wednesday, 11 August 2010. अशोक आंद्रे. घर की तलाश. मुद्दतों के बाद लौटा था वह. अपने घर की ओर,. उस समय के इतिहासिक हो गए घर के. चिन्हों के खंडहरात. शुन्य की ओर ताकते दिखे प्रतीक्षारत . उस काल की तमाम स्मृतियाँ. घुमडती हुई दिखाई दीं ,. हर ईंट पर झूलता हुआ घर. भायं-भायं करता दीखा,. दीखा पेड़ , जिसके नीचे माँ इन्तजार करती थी. शाम ढले पूरे परिवार का . उसी घर के दायें कोने में पड़ी सांप की केंचुली. चमगादड़ों द्वारा छोडी गयी दुर्गन्ध. जबकि दुसरे कोने में. कोशिश कर रही थीं,. रख गया था. करते हुए,. अनगिनत स...